शुक्रवार, 25 मई 2012

पत्थरों की दरारों से उगते हुए रिश्ते.....

:पत्थरों की दरारों से उगते हुए रिश्ते: रचनाकार:अमित सर:

कभी तुमने देखा है ....
पत्थरों की दरारों से ...
उगते हुए फूलों को !!!
सोचा है कैसे उगता है ...
पत्थरों के बीच से ....
दिल भी खालिस पत्थर है ....
दरारें है रास्ता ....
रास्तों के खुलने से ...
उसमे बूँदें मिलने से...
एकसाथ घुलने -से ...
सुब्ह-शाम धुलने से...
भवरों के मचलने से...
चिड़ियों के चहकने से...
मंजर बदल जाते है ....
कलियाँ चटक जाती है ....
फूल खिल जाते है ...
चलिए हम बताते है -
ये कैसे होता है ???
कैसे दिल पिघलता है...
कैसे बात बनती है ...
कैसे घर महकता है ...
ये दिल जो है ना...
पत्थर -सा सख्त है ...
पानी से तडकता है...
धूप से चटकता है ...
आसूँ इसका पानी है ...
रिश्ते इसकी धूप है ...
जस्ब कर लो पानी को ...
गर्म कर लो रिश्तों को ...
फिर पत्थर पिघलेंगा...
याने दिल भी संभलेंगा!!!
रास्तों के खुलने से ...
दिल-के-दिल में मिलने से ...
हरियाली आएँगी...
काली घटा छायेंगी...
सारे पाप धो देंगी ...
बूंदे ये बारिश की ...
आखों से नीर निकलेंगा ....
मन का मैल धो देंगा ...
तब कलियाँ  खिलेंगी ....
रिश्तों के फूलों की ...
पत्थरों की दरारों -से ...
मैंने बात कह दी है ...
सारी ये इशारों से ...
कभी तुमने देखा है ...
पत्थरों की दरारों में ...
उगते हुए फूलों को !!!!





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