लोगों ने कभी ऐसा, देखा न सुना पानी,
पानी में बही बस्ती, बस्ती में बहा पानी.
पर्वत के ज़ुबां फूटी, इक शोर उठा, पानी !
मंज़र पे बना मंज़र, पानी पे गिरा पानी.
सैलाब ने हर घर की सूरत ही बदल डाली,
रुकने को किसी घर में, पल भर न रुका पानी.
दरिया की जगह घेरी, पत्थर के मकानों ने,
बारिश में नहीं अपने आपे में रहा पानी.
बन्दे से ख़ुदा बनते, देखा है उन्हें हमने,
जो लोग कराते हैं, पानी से जुदा पानी.
- हिंदी के वरिष्ठ ग़ज़लकार सूर्यभानु गुप्त की ये ग़ज़ल कोई दो दशक पुरानी है. उत्तराखण्ड की त्रासदी ने इसे एक बार फिर प्रासंगिक बना दिया है.
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