मैं एक सफऱ हूँ जिसकी मंज़िल नहीं कोई
वर्धा से अयोध्या की व्यथा मैंने सही
परिवार में रहकर,परिवार से दूर रहा
अपनी आप बीती मैंने किसी से न कही
जिसके सबसे करीब था उसी नें तोड़ा मुझे
हालातों नें भी खूब निचोड़ा मुझे
संघर्षों में मैंने जवानी है खोई
मैं एक सफऱ हूँ जिसकी मंज़िल नहीं कोई
वर्धा से अयोध्या की व्यथा मैंने सही
जीवन के संघर्षो नें पाला है मुझे
माँ के आँचल से निकाला है मुझे
इस घर की अमानत मैं उस घर का हुआ
पर मेरे दुःख को अपनों नें न छुआ
ममता की छाँव कैसे ओझल हुई
मैं एक सफऱ हूँ जिसकी मंज़िल नहीं कोई
वर्धा से अयोध्या की व्यथा मैंने सही
जैसे ही माँ छूटी हुआ थोड़ा बड़ा मैं
नाना गए अचानक,फिर सिर्फ लड़ा मैं
फिर संभला ही था कि टूट गया घर
कितना मुश्किल है जीवन का सफऱ
सोचता हूँ क्या मेरी किस्मत है सोई
मैं एक सफऱ हूँ जिसकी मंज़िल नहीं कोई
वर्धा से अयोध्या की व्यथा मैंने सही
पर सच कहूँ लगता है ख़रा सोना हूँ
भट्टी में तपा पक्का खिलौना हूँ
तभी तो *रामजी* परख रहें है मुझे
दुश्मन भी देखकर थक रहें है मुझे
काट रहा हूँ जाने कौन फसल बोई
क्या सचमुच...
मैं एक सफऱ हूँ जिसकी मंज़िल नहीं कोई
वर्धा से अयोध्या की व्यथा मैंने सही
नहीं,मुझे लगते है दुःख अब कम
दुःख हो या सुख अब रहता हूँ सम
दो हीरे दे दिए ईश्वर नें मुझे
जरुर रहें होंगे कोई अच्छे करम
मैंने अपनी पूंजी बच्चों में है संजोई
मैं एक सफऱ हूँ,क्या गम जो मंज़िल खोई
वर्धा से अयोध्या तक की कथा मैंने कही!
वर्धा से अयोध्या तक की कथा मैंने कही!
रविवार, 9 नवंबर 2025
चंद्रकांत भैय्या के लिए
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