शुक्रवार, 8 जून 2012

मैंने जो भी .....

:मैंने जो भी : रचनाकार :अमित सर:

मैंने जो भी सपने देखे
मेरे सपने
,तेरे सच ....

अपने बीच हुए थे मन में

तेरे - मेरे फेरे सच....


टूटे मन की झूठी बातें

उठते ही आ-घेरे सच....


मैं हूँ आधा अर्ध-सत्य सा

तेरे है सब मेरे सच ....


मेरी दुनिया थी सपनों की

तूने आके बिखेरे सच......


मैंने जो भी सपने देखे

मेरे सपने
,तेरे सच ....

चूहे खा जायेंगे ....

:FCI के चूहे : रचनाकार: अमित सर:

13  हजार टन चावल !!!
खाया है मूषक राज ने !!!
ढूँढो तो ये चूहे कैसे है ???
क्या इनके जेब में पैसे है ???
इंसानों जैसे दिखते है ...
इन्हें बाबू-अफसर कहते है...
नेताजी इनके राजा है ...
"
कृपा " से इन्हें नवाज़ा है ...
चूहों का पेट तो छोटा है....
पर राजाओं का मोटा है !!!
क्यों चूहों को बदनाम किया ???
क्या सचमुच है ये काम किया ....
मेरे गणेश के वाहन ने ???
दिल मान नहीं पाता मेरा !!!
एक चूहा पकडके लाओ ना...
मुझको तुम दिखलाओ ना ...
"
मोटा - चूहा " कैसा होता है ?
कुपोषितों को बताओ ना ....
मैं इनको वहाँ पे भेजूँगा....
वो भी छक-छक के खायेंगे ....
खूब मौज उडाएँगे !!!
कभी तो वो दिन आएँगे ....
जब FCI  के बर्बाद गोदाम ...
भूखमरी मिटाएँगे !!!
वर्ना ! हजारों टन चावल ...
यूँहीं चूहे खा जायेंगे ....
यूँहीं चूहे खा जायेंगे ....

डॉक्टर साहब !!!

:डॉक्टर साहब !!!: रचनाकार:अमित सर:

प्यारे डॉक्टर साहब !!!
आप कैसे पत्थर दिल हो गए ....

पैसों की अंधी दौड़ में ....

क्यों ऐसे खो गए
???
आप थे डॉक्टर ...

आपको बनना था भगवान...

पर आप तो नहीं बन पाए ...

ढंग के भी इंसान .

कमीशन खानेवाले....

दलाल बन गए ....

मरीजों का सौदा करके ...

मालामाल बन गए !!!

वो हर किसी को ...

सलाईन चढ़ाना ...

रूम ख़ाली न जाये ...

इसलिए मरीज रुकवाना ...

शक्कर के पानी वाला...

साईरप चलवाना ....

माँओं
  के पेट में...
बच्चियाँ
  मरवाना ...
अपने गधे बेटे को ...

घोडा बनवाना ....

डोनेशन देना
,
पैसा खिलवाना ....

और फिर....

खून चूसने के लिए ...

एक और " ड्रेकुला "
  ...
तैयार करवाना !!!

ये क्या है डॉक्टर साहब
???
आप कैसे हो गए
???
दो टके के दल्ले जैसे हो गए....

दवा-कंपनियों के....

पुच्छल्ले जैसे हो गए !!!

ये क्या है डॉक्टर साहब
???
आप कैसे हो गए
???

बचपन सारी उम्र पे भारी होता है !!!

:बचपन सारी उम्र पे भारी होता है !!!:रचनाकार:अमित सर:
जाने क्यूँ स्कूल कैद - सा लगता है !!!

पीरियड पर पीरियड ....
रेल -से चलते है ...
ऊँघती क्लासों में भी...
सपने पलते है...
जाने कब ये भारी लम्हें...
कट जाएँगे ?
कब टन-टन-टन कर...
काका बेल बजाएँगे...
कब आजाद होंगे हम....
इस जेल से ...
कब बीच की छुट्टी का...
मजा उठाएँगे !!!
रह-रह कर अहसास यही क्यूँ जगता है
जाने क्यूँ स्कूल कैद - सा लगता है !!!

काश कि सारे टीचर....
बच्चे बन जाएँ ...
न डांटें , न मारे....
अच्छे बन जाएँ ....
होमवर्क की सारी झंझट...
मिट जाए....
हँसतें - खेलते लेक्चर ....
सारे हिट जाएँ....
गुरूजी न लगे विलेन के जैसे अब....
सबके-सब रोमांटिक हीरो बन जाए ....
मैडम सारी वैम्प - वैम्प सी लगती है ...
काश के सारी....
मधुबाला-सी हो जाए....
क्यों ये मन सपनों की राह पकड़ता है
जाने क्यूँ स्कूल कैद - सा लगता है !!!

वो आख़िरी पीरियड स्कूल का....
भारी होता है....
मन तो लगता नहीं ....
फरारी होता है !!
बस स्कूल छूटने के ...
इंतजार भरे लम्हे वो !!!
तेरे घर तक - का सफ़र ...
फिर जारी होता है....
कैसे समेट लूँ ....
उन अद्भुत लम्हों को मैं .....
क्यों बचपन सारी ....
उम्र पे भारी होता है !!!
स्कूल की खट्टी - मीठी ...
यादों का....
क्यूँ दीपक रह-रहकर सुलगता है
जाने क्यूँ स्कूल कैद - सा लगता है !!!
 
या के , मैं चाहता हूँ ...
खुद को स्कूल में कैद करना ....
हो सकता है मुझको....
दुनिया से  डर लगता है....
इसीलिए तो खो जाता हूँ यादों में ....
मन बार-बार क्यूँ - यूँ मेरा तडपता है ....
जाने क्यूँ मैं कैदी बन जाता हूँ ???
जाने क्यूँ स्कूल कैद - सा लगता है ???

बुधवार, 6 जून 2012

सूरज के उस काले तिल के नाम .....

:शुक्र-पारगमन:रचनाकार:अमित सर:

सूर्य !कितना क्रोध है,
संताप है तुममें ....

जाने कितनी ज्वाला ...

कितनी आग है तुममें
...
हमेशा धधकते रहते हो....

आग उगलते रहते हो ....

अपनी-ही क्रोधाग्नि में...

कितना जलते रहते हो
???
पर आज अचानक ...

तुम
,कितने शांत हो गए !!!
इतनी नरमी ओढ़ ली ...

कि -

अपने गाल पर ...

काला टिका
लगा बैठे !!!
शुक्र के अणु को ...

खुद में समा बैठे ...

खूबसूरत बन गए ...

काला-तिल लगाकर...

या थक गए थे रोज-रोज ...

अपना दिल जलाकर !!!

सच कहो !!

कहीं तुम्हें प्यार तो नहीं हो गया !!!

बताओ न !

आखिर कैसे....

तुम्हारा भी दिल खो गया !!!
बताओ न !
आखिर कैसे
???

मंगलवार, 5 जून 2012

सड़क बेचारी राखी सावंत हो गयी !!!

:सड़क: रचनाकार:अमित सर:

उस छायादार सड़क के दोनों किनारे .....
सायादार पेड़ हुआ करते थे .....

बड़े-बड़े
,हरे-हरे !!
उस सडक से गुजरने का अपना मजा था ....

वो धूप को ढँकती थी ....

बदन ठंडा रखती थी ....

कभी-कभी लगता था ...

सड़क एक चेहरा है ...

और
, पेड़ उसकी - हेयर स्टाइल !!
बड़ी सुन्दर दिखती थी...

कुछ बड़े-बड़े दरख्त ...

एकदम हट्टे-कट्टे ...

रूआबदार ...

उसके बॉडीगार्ड लगते थे!!

पर
,एक दिन फरमान आया ...
सड़क चौड़ी करो !!!

फिर क्या था ...

ठेकेदार भीड़ गए...

सड़क का सीना चिर गए ...

सबसे पहले बाल कटे....

याने कि छोटे पेड़ हटे...

अब सड़क "गंजी" हो गयी ...

उसकी खूबसूरती खो गयी ...

लिहाजा ..सोचा गया -

अब बॉडीगार्ड का क्या काम ...

सो
, बड़े दरख्त भी कटे....
सारे-के-सारे किनारों से हटें !!!

अब सडक चौड़ी हो गयी ...

पर जाने कहाँ उसकी...

 सुन्दरता खो गयी !!!

पहले दिखती थी केट विंसलेट की तरह ....
अब बेचारी राखी सावंत हो गयी !!!

सोमवार, 4 जून 2012

खूब तुम्हारी याद का मौसम ,धड़कन-धड़कन चलता है ...

:खूब तुम्हारी याद का मौसम: रचनाकार : अमित सर:

खूब तुम्हारी याद का मौसम ,धड़कन-धड़कन चलता है
पलकों की सतहों के नीचे ख्वाब तुम्हारा पलता है


घर में बड़ा हूँ इस नाते से
,रो भी तो मैं नहीं सकता
आँसू मेरा अन्दर-अन्दर
, अन्दर-अन्दर जलता है

पल-पल
,पल-पल,पल-पल,पल-पल,तुमको ही है याद किया
और कहती हो तुम के मुझको साथ तुम्हारा
,खलता है

रातें कितनी लम्बी हो गयी
,खाली-खाली बिस्तर पर
दिन का क्या है
, जल्दी-जल्दी,जल्दी-जल्दी, ढ़लता है

सारे लम्हें - सारे मौसम पलक झपकते टल जाते है
पर कहाँ तुम्हारी याद का मौसम, टाले से भी टलता है

धूप के लश्कर अच्छी-अच्छी हिमशिला पिघलाते है

पर याद तुम्हारी ऐसी जमी है
,बर्फ नहीं ये गलता है

रविवार, 3 जून 2012

छोटे शहरों की वन-वे व्यथा ....

:वन-वे : रचनाकार : अमित सर:

सुबह  - सुबह छः-सात बजे ....
निकला करता था ऑफिस के लिये...
जाते में सारी दुकाने बंद होती थी ...
गलियाँ अलसाती हुई...
बस आँखे मलती रहती थी ....
किसी से दुआ - सलाम न होता था...
बस रास्ता सूना होता था...
पर लौटते में....
मुहल्ला जाग जाता था ...
रफ़्तार पकडके आगे-आगे ...
भाग जाता था...
बंद दरवाजों से चेहरे झाँकने लगते...
आते में हम दुआ-सलाम कर...
उन्हें ताकने लगते ....
आते में मैं अपने काम की गठरी
छोड़ आता था....
जीवन की रेल को
धीमी ट्रैक पर मोड़ लाता था ....
सबसे मिलता -मिलाता था ..
फिर घर को आता था...
पर सालों का ये सिलसिला ...
SP साहब ने ताक पर धर दिया
हमारी राहों को " वन - वे " कर दिया
हम अब अंजानी गलियों से ..
घूम कर घर तक आते है !!!
महंगाई में दुगुना पेट्रोल जलाते है !
A.C. केबिनों में बैठकर ....
न जाने अफसर ..
कैसे-कैसे तुगलकी फरमान सुनाते है ...
क्यों अपनी महत्वाकांक्षा में....
हमारे अरमान जलाते है !!!
पर इतने सालों की आदतें ...
कहाँ एक पल में बदलती है ...
अब भी गाड़ी उस मोड़ पर ...
मचलती है...
पर बात एक ही खलती है ....
घर सामने होता है -
पर मैं जा नहीं पाता हूँ ...
क्या करूँ " वन-वे " धर्म निभाता हूँ !!!!
क्या करूँ " वन-वे " धर्म निभाता हूँ !!!!

आम आदमी क्या कर सकता है .....


:चाँद उड़ाकर लाया हूँ : रचनाकार : अमित सर:


खूब मेहनत की है ,खूब कमाकर आया हूँ
मैं चाँद तोड़कर लाया हूँ .....

हम दाना-दाना तरसे थे
जब मेघ यहाँ न बरसे थे
जमीन की छाती सूखी थी
कुँए और नदियाँ भूखी थी
जब फाँकें हमने काटे थे
दुःख ही दुःख तो छांटें थे
FCI  के गोदाम से अनाज चुराकर लाया हूँ
मैं चाँद उठाकर लाया हूँ

क्या थी तड़प गरीबी की
हदें थी बदनसीबी की
बच्चों को तडपते देखा था
एक बच्चा नदी में फेका था
जिन्दा-जिन्दा तडपे थे
बच्चे तो सूखे पडपे थे
नेताजी के बच्चे को किडनैप  कराकर लाया हूँ
मैं चाँद बुझाकर लाया हूँ

कितनी रिश्वत बाँटी थी
एक राशन कार्ड बनाने को
भटका था दफ्तर-दफ्तर
मैं कुआँ खुदवाने को
लकड़ी भी खरीदनी पड़ती है
यहाँ मुर्दों को जलवाने को
उस भ्रष्ट ऑफिसर का सीना छलनी करवाकर आया हूँ
मैं चाँद जलाकर लाया हूँ

सोने की चिड़िया देश मेरा
बस नोच-नोचकर खाया है
घोटालों पर घोटालें है
PM  सबका सरमाया है
मेरी भारत माता पर
इटली की काली छाया है
सत्ता के दलालों का ,मैं वोट कटाकर आया हूँ
मैं चाँद छुड़ाकर लाया हूँ

महंगाई ने तोड़ दिया
चूल्हे ने मुहँ मोड़ दिया
रोटी चाँद में हँसतीं है
दाल सपनो में बसती है
चावल कहता है दूर रहो
गरीब हो तुम मजबूर रहो
मैं नेताजी के रस्ते पर बारूद बिछाकर आया हूँ
मैं चाँद तपाकर आया हूँ

नदियाँ सारी सिकुड़ गयी
साहिलों से बिछुड़ गयी
गंगा ने दम तोड़ दिया
यमुना ने मुहँ मोड़ लिया
जंगल में होटल बन गए
कब नेताओं ने लोड लिया
इन सारे रिश्वतखोरों को नाले में डूबाकर आया हूँ
मैं चाँद धुलाकर लाया हूँ

जेलों में गरीब ही सड़ता है
फूटपाथ पे भूखा मरता है
नेताओं ने LAW का यूज किया
अदालत को कन्फ्यूज किया
तारीखों के खेल के बीच
पैसों का मिसयूज किया
नेताओं की लंका को ,मैं आग लगाकर आया हूँ
मैं चाँद पकाकर लाया हूँ
कुंदन सा तपाकर लाया हूँ
गंगा में डूबाकर लाया हूँ
मैं इसको भगाकर लाया हूँ
शिद्दत से सजाकर लाया हूँ
ये चाँद नहीं मेरा भारत है
इसे खुद को मिटाकर लाया हूँ
मैं चाँद उड़ाकर लाया हूँ
मैं चाँद उड़ाकर लाया हूँ




शुक्रवार, 1 जून 2012

अपने मन की खुशबू दे-दो,अपने तन का चन्दन दो...

:खजुराहो:रचनाकार: अमित सर:


प्रेम-पर्व की प्रथम रात्रि का तुम मुझको अभिनन्दन दो
तुम खजुराहो की मूरत सी
, प्यार भरा आलिंगन  दो

प्यार भरी बारिश में डूबूँ

मुझको सारा यौवन दो

विरह वेदना में मैं तपा हूँ

मुझको प्यार का सावन दो

छूकर गुजरे मन को मेरे

प्यार तुम ऐसा पावन दो

अपने मन की खुशबू दे-दो
, अपने तन का चन्दन दो 
तुम खजुराहो की मूरत सी
, प्यार भरा आलिंगन  दो

आँखों से तो छुआ बहुत है

हाथों से भी तो छू-लो

सावन के झूलों में झूली

अब इन बाँहों में झूलों

मेरे अंतर्मन में झाकों

दो है हम
,अब ये भूलो
अधर-अधर अब घुल-मिल जाये
, हल्का-गहरा चुम्बन दो
तुम खजुराहो की मूरत सी
, प्यार भरा आलिंगन दो

ये जो चाँदनी तुमने अपने
शफ्फाक बदन पर ओढ़ी है

लगता है के ताजमहल की

संगमरमरी ड्योढ़ी है

कायनात से थोड़ी-थोड़ी

सुन्दरता यूँ जोड़ी है

कस लो मुझको मोहपाश में
,अपना गरिमामयी बंधन दो
तुम खजुराहो की मूरत सी
, प्यार भरा आलिंगन दो


तुम तारों का आभामंडल

आकाश से उतरी गंगा हो

इस रात को ऐसी सहर पे छोड़ो

के
, हर रंग तुममे रंगा हो
ये उज्वल
  तुम्हारी बनावटें
अनसुलझी आकाश-गंगा हो

रात की बातें भोर तलक हो
,सुबह को ऐसा वंदन दो
तुम खजुराहो की मूरत सी
, प्यार भरा आलिंगन दो
 
तुम बनो देवकी वासुदेव मैं
,मुझको देवकीनंदन दो
तुम खजुराहो की मूरत सी
, प्यार भरा आलिंगन दो