मंगलवार, 16 सितंबर 2014

देखा है राह में पत्थर तोड़ती उस औरत को ......
क्या चमक है चेहरे पर  .....
भरी दुपहरी में
पसीने की ढलकती बूँदें ......
मानो फूल से ओस झर रही हो ......
कहता है उसका पति -
क्यों इतना काम कर रही हो ?
कहती है -
थकन से चूर ये बदन ......
ये उठती सिहरन ......
ये मीठा दर्द ......
सुकून का अहसास कराते है ......
मेहनत करने से कोई मरता है क्या !!
मैंने तो नहीं सुना ......
फिर डरते क्यों हो ???
उठो , जागो , चलो मेहनत करो ......
ये मेहनत सुकून का अहसास कराएेंगी ......
हर मुश्किल का ये जवाब है ......
यही सफलता दिलाएंगी ......
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सचमुच सड़क किनारे भी
फिलॉसॉफर बसते है !!!!
हम यूँ ही इन मेहनतकशों
पर हँसते है !!!  
सचमुच सड़क किनारे
फिलॉसॉफर बसते है !!!!

रविवार, 14 सितंबर 2014

अहसासों की भाषा .......
प्रेम की भाषा.......
संस्कारों की भाषा.......
वो भाषा जिसकी गोद में हम पलें -बढ़े
वो भाषा जिसमें सपने परवान चढ़े
वो भाषा जो आत्म-सम्मान है
वो भाषा जो जीवन का ज्ञान है
वो भाषा जो जीवन की रसधार है
वो भाषा जिससे मोहब्बत अपरंपार है
वो भाषा जो रिश्तों की बुनियाद है
वो भाषा जिसमें जागते अहसास है
वो भाषा जिसका शब्द-शब्द 'गंगा' है
वो भाषा जिसके रंग में देश रंगा है
वो भाषा जिसकी ऊँगली पकड़कर उठे है हम
वो भाषा  आँसूओं में ढली और रूठे है हम
वो भाषा जो दोस्ती को जोड़ती है
वो भाषा जो दीवारें तोड़ती है
वो भाषा जो रूमानी हो जाती है
वो भाषा जो वेद-ज्ञान बतलाती है
वो भाषा जो जीवन संवेदना है
वो भाषा जो कवि ह्रदय की प्रेरणा है
वो भाषा जिसने गीता का मर्म समझाया
वो भाषा जिसने जीवन का कर्म समझाया
वो भाषा जो मुझको पूर्ण करती है
वो भाषा जो अर्थ सम्पूर्ण करती है
उस पर गर्व से अब इठलाता हूँ मैं
"हिंदी" मेरी माँ है बतलाता हूँ मैं !!!
"हिंदी" मेरी माँ है बतलाता हूँ मैं !!!
"माँ"

मेरी परीकथाओं का साकार रूप हो तुम.…… 

तुम्ही ने लाड -प्यार से दुलारा
मेरी अनगढ़ हस्ती को है निखारा
पौधों को जो दे-दे जीवन , वो धूप हो तुम 
मेरी परीकथाओं का साकार रूप हो तुम.…… 

हर घर में ईश्वर कहाँ से झाँक पाता
आ-कमरों में किस-किस बन्दे को ताक पाता
मेरे लिये तो ईश्वर स्वरुप हो तुम
मेरी परीकथाओं का साकार रूप हो तुम.…… 

तुम्हारे दिल के दर्द की क्या थाह जानूँ
तुम्हारे मन से निकली मैं क्या आह जानूँ
मैं 'प्रतिलिपि' माँ 'मूलभूत' हो तुम
मेरी परीकथाओं का साकार रूप हो तुम.…… 

समर्पण की हदों की परिसीमाऐं तुममें 
प्रेमभाव की सारी कल्पनाऐं तुममें 
बच्चों का बदल दे जो जीवन , वो रुत हो तुम
मेरी परीकथाओं का साकार रूप हो तुम.…… 



मौसम ने साजिश की है ....
रातों में बारिश की है !!!
भीगूँ अब मैं संग किसके
ये कैसी गुजारिश की है ???
कुछ बारिशें उसके नाम :

तेरी कंचन काया पर , बूँदें ओस-कँवल
टिकी जो तेरी पलकों पर , बन गई गंगाजल

छाता लेकर तुम चली , हौले-हौले पाँव
कुछ भीगी और कुछ सूखी, जैसे धूप और छाँव

पानी आग लगाता है, सच होती ये बात
भीगे-भागे मौसम में , तेरा-मेरा साथ

शफ्फाक़ बदन पर बूँदें समेटें, तू खुद में सकुचाई
और ऐसे में मेरी नज़रें , तुझसे करे लड़ाई

भीगे- भागे अंग पर , बूँदें खेलें-खेल
हाय ! बारिश की बूंदों का,उन कपड़ों से मेल
जिंदगी तुम्हारी नज़र कर रहा हूँ
खुद पे ये कैसा कहर कर रहा हूँ

तुम्हें चाहता हूँ कितना टूटकर मैं
ग़ज़लों से अपनी खबर कर रहा हूँ

होकर के दूर तुमसे ,तुम्हे चाहूँगा मैं
तुम्हारी भावनाओं की कदर कर रहा हूँ

तुम तो रुक गयी,राहों में प्यार की
पर मैं अब भी ,सफ़र कर रहा हूँ
शब्दों में मैं बाँध न पाँऊ , इतना सबने प्यार दिया
जन्मदिवस पर शब्द सुमन का, प्यार भरा उपहार दिया
फेसबुक की वॉल को रंगा, रंग-बिरंगे मैसेज से
नयी उर्जा दी ,नवजीवन की;एक नया संचार दिया
Baarish .... full of Romance!

पानी आग लगाता है,सच होती ये बात
भीगे-भागे मौसम में, तेरा-मेरा साथ

बारिश में भीगा दुपट्टा,लगा गले से जाकर
रख ली दो किताबें तूने,सीने से चिपकाकर

उठा दिए पर्दे बारिश ने,उस शफ्फाक़ बदन से
तह-दर-तह तू छुपा रही थी,जिसको इतने जतन से

भीगे-भागे अंग पर,बूंदे खेले-खेल
हाय! बारिश की बूंदों का,उन कपड़ों से मेल

सकल तुम्हारे रूप का, दर्शन दिया कराए
मेघों से है प्रार्थना, खूब झूमकर आए
सम्पूर्णता की परम कहानी
जगत के कण-कण में तुम बसे हो
ब्रह्माण्ड-नायक ,त्रिकालदर्शी
हर इक कसौटी पर तुम कसे हो....

किताबें बांची न जाने कितनी
मिली न कोई गीता के जैसी
पढ़े है जीवन चरित्र कितने
बस एक तुम ही मुझको जंचे हो.... 


ब्रह्माण्ड-नायक ,त्रिकालदर्शी
जगत के कण-कण में तुम बसे हो
गंगा के संगम में डुबकी लगाकर
वो तेरा भीगे कपड़ों में निकलना
गंगा - सी निर्मल पवित्र सच्चाई
वो तेरा मेरी आँखों में पिघलना

गंगा की धारा में,पत्तल के दोनें में
ज्योति जलाकर बहाई जो तूने
लगा आसमाँ के आँचल से जैसे
सितारों की टोली का गिरकर बिखरना

गंगा के तट पर या किसी घट पर
सूरज को हौले से अर्ध्य चढ़ाना
लगता है झरने गिरे परबत से
यूँ तेरे हाथों से पानी का गिरना

गंगा के संगम में डुबकी लगाकर
वो तेरा भीगे कपड़ों में निकलना
हर एक ऊँगली पर मेरी,सौ-सौ दिल धडकते है
जब - जब ये हाथ तुम्हारी लिखावटों को पढ़ते है !

वो चढाव-उतार,वो हर ईक मोड़ इस सफ़र का
ये काम भी हम,इबादत की तरह करते है !
तुम आओ न ....
मेरी जागती आँखों का सहारा बनकर
देखने मेरे दिल में .....
जो लगी तुम्हारी झाँकी है .....
बहुत कुछ है,जो तड़प रहा है अंदर
मेरी ग़ज़ल अब भी बाकी है !!!!
तुम मेरी धड़कन की सरगम को , पढ़ो तो ……

साँसे मेरी अंतहीन रह जाएँगी
चीर - निद्रा भी  सुला न पाएँगी
आकर के निंदों में मेरी , सपनों को गढ़ो तो
तुम मेरी धड़कन की सरगम को , पढ़ो तो ……

इक झलक , इक मुस्कुराहट , इक अदा-सी
क्यों हमेशा से ही लगती हो जुदा-सी
प्रेम के इस प्रगतिपथ पर तुम बढ़ो तो
तुम मेरी धड़कन की सरगम को , पढ़ो तो ……

टूटना मैं चाहता हूँ , जोड़ दो तुम
मैं मना लूँगा,रूठना छोड़ दो तुम
जीवन समर में संग मेरे तुम लड़ो तो
तुम मेरी धड़कन की सरगम को , पढ़ो तो ……

चाहता हूँ यादों को तुम्हारी अब सहेजना
चाहता हूँ अब तुम्हें मैं प्रेमपत्र भेजना
छोड़ो SMS , खतों  को मेरे , पढ़ो तो
तुम मेरी धड़कन की सरगम को , पढ़ो तो ……

प्रेम का उत्कर्ष राधा ने जिया है
प्रेम का प्याला तो मीरा ने पिया है
मोहब्बतों के शिखर पर तुम चढ़ो तो
तुम मेरी धड़कन की सरगम को , पढ़ो तो ……

ये बात और है कि , जुदा है मेरी नमाज़
अल्लाह जानता है कि काफ़िर नहीं हूँ मैं
- राजेश रेड्डी

झुकता है पाँच वक़्त , तेरे सदके में मेरा सर
बात और है के मस्ज़िद में, हाज़िर नहीं हूँ मैं
- अमित साहू
क्यों करती हैं यादें , परेशान कभी - कभी
आ भी जाओ ,कर दो ये अहसान कभी-कभी!!
बिछड़कर के तुमसे , दिल तड़पता है ऐसे
के लगता है जिस्म भी, बेजान कभी - कभी!!
तुममें यूँ खोना और खुद को भूल जाना
लगती हूँ खुद से ही, अनजान कभी -कभी !!
मुझे लोग तेरे नाम से जानने लगे है
अच्छी लगती है खोती हुई, पहचान कभी -कभी !!
चाहती हूँ मेरी आँखों से , तू न झलकें
पर छलक आते हैं , अरमान कभी -कभी !!
क्यों करती हैं यादें , परेशान कभी - कभी
अजीब लगती है ये शाम कभी -कभी !!

इस ग़ज़ल की पहली और आखिरी लाईन Ravina Sangtani की वॉल से ली गयी है !
बारिश की हर बून्द मुझे, अब लगती है ख़ास
तेरे संग ये बारिशें , शबनम - सा अहसास !!!


बारिश की बूंदें कहें , आ जमाएँ महफ़िल
मैं तो छत पर आ गया ,तू भी आकर मिल !
शीशे के टुकड़े चमकाते थे छतों पर ,
तो पा जाती थी,इशारा वो छत पर आने का !

कम्बख़्त मोबाईल ने सारा मज़ा किरकिरा कर दिया !!!
मेरे चेहरे पे गरीबी का रुबाब रहने दे ,
नहीं कर पाऊँगा समझौते अमीरी के लिए !!!
"POLA AUR DOST"

पता नहीं क्यों “पोले” पर “दोस्त” याद आते है ……
सब के सब बैल थे साले ……
एकदम वफादार……
कभी साथ नहीं छोड़ते थे
चाहे लेक्चर गोल करना हो या
कॉलेज में बम फोड़ना हो ……
किसी से झगड़ना हो
या लड़की को पकड़ना हो !!!
लुच्चे …… सारे,साथ निभाते थे
जैसे झुण्ड में चलते है बैल
वैसे ही महफ़िल सजाते थे
सब के सब बैल थे साले ……
कॉलेज टॉप करने पर मुझे बैल बुलाते थे
कितनी हिम्मत थी सालों में
हरदम साथ निभाते थे !!!
पर जीवन की आपाधापी में
कितने जहीन हो गए है ……
सारे दुनियादारी में खो गए है
सब "बैल" साले दीड-शहाणे हो गए है
अबे बैलों फुर्सत मिले तो फिर से महफ़िल जमाओ
मेरे घर के दरवाजे राह तकते है
आज पोला है मेरे बैलों , मिलने आ जाओ !!!!
और गहरा हो रहा विश्वास मेरा ……

प्रेम की नयी परिभाषाएँ गढ़ रहा हूँ
आँखों से अब मैं भी चेहरे पढ़ रहा हूँ
हर लम्हा अब हो रहा है खास मेरा
और गहरा हो रहा विश्वास मेरा ……

कोई तो है डोर , जो दिखती नहीं है
यूँ -ही तेरे गम में पलकें भीगती नहीं है
शुद्धता को छू रहा , हर अहसास मेरा
और गहरा हो रहा विश्वास मेरा ……

जो क्षणिक सुख की चाह में न जलें
जो साँसों में गूँथे और पलकों पर पलें
कोई छू रहा है सपनों का आकाश मेरा
और गहरा हो रहा विश्वास मेरा ……

राम-सीता , कृष्ण-राधा प्रतिमान बने अब
शालिनता ईश्क़ की पहचान बने अब
हो वासना-मुक्त हर मोहपाश मेरा
और गहरा हो रहा विश्वास मेरा ……