सर झुकाए यहाँ खड़ी है सदियाँ कतार में
कोई अंतर नहीं आया मानव के व्यवहार में
झूठ का शिखर ऊँचा,सच गर्त में डूबा
उसने मन का सुख ढूंढा,दूसरों की हार में
"राष्ट्रवाद" का ये कैसा नंगा नाच है यहाँ
देशद्रोही है वो जो,अलग है विचार में
बेटियों की लाशें जलाकर सत्ता सुख को भोगते
अट्टाहस दबा नहीं,पीड़ा में,चित्कार में
लोकतंत्र,वोटतंत्र में बदलकर रह गया
शेष रह गयी जनता अब तो सिर्फ़ दुत्कार में
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