शनिवार, 29 मई 2021

आपदा में अवसर

बहुत दिनों से लॉकडाउन में...
धीरे - धीरे...
घर की हालत
थोड़ी - थोड़ी
करके ऐसी डाउन हुई...
कि परिवार का
GDP जीरो पर आ गया!
सबसे पहले उखड़ी साँस
आटे के कनस्तर की
फिर धीरे-धीरे
तेल का पीपा लगा हाँफने
फिर दम तोड़ा नमक -मिर्च
की डिब्बीयों ने!
फ्रिज अभी जिन्दा है
पर अकेला है...
उसके दोस्त...
सब्जी-फल सारे
एक-एक कर छोड़ गए साथ!
उफ्फ़!
बचत भी हौल-हौले
रिसती चली गई...
जैसी अंतिम क्रिया
के मटके में किए
गए छेद से
रिसता है पानी....
और फिर जमीन
पर पटककर
कर दी जाती है
घोषणा...
जीवन के खालीपन
और
क्षणभंगूर होने की !
पर जब तक है
साँस सलामत...
काहे की क्षणभंगूरता?
यहाँ तो हर क्षण
संघर्ष है!
सो....
तय हुआ घर में जो
बूढी अम्मा है...
वो लगाएँगी
ठेला सब्जी का!
क्योंकि...
कड़क लॉकडाउन है
और...
देनी है होम डिलीवरी!
अब 30-40 रुपए की
सब्जी की होम डिलीवरी
देंगे 100 रुपए लीटर का
पेट्रोल फूँककर
तो कमाएँगे क्या?
और...
खाएँगे क्या?
बस इसीलिए...
ठेला लगाने का रिस्क लिया!
और...
बूढी अम्मा को
इसलिए किया फ़ाइनल
ताकि साहब लोग
थोड़ा रहम करें!
हम दोनों भाई
दोनों चौक पर देंगे पहरा
और बीच में होगा
सब्जी का ठेला
बिलकुल सिक्योर!
बस एक-दो
ग्राहक ही आए होंगे
सायरन बजाती गाड़ी आई
हम भागे दोनों ओर से
माँ ठेला अंदर ले ले...
बस उतरे साहब रौब में
जडे हमें दो थप्पड़
और उलटा दिया
ठेला सारा नालें में!
बोले सालों
कोरोना फैलाते हो!
माँ लगी रोने साहब जाने दो...
साहब ने माँ को भी
दे मारा धक्का...
मैंने भी खोकर
आपा अपना...
धो डाला साहब को
देकर मुक्का!
पकड़कर ले गए
मुझको फिर वो थाने
लगाते गए धाराओं पे धारा
मैंने माँगी माफ़ी
पर वो ना माने!
मैं रोज़गार के चक्कर में
अपराधी बन गया...
अच्छा होता गर
अपराध को बना लिया होता रोज़गार
और सब्जी की जगह
करता दारु का व्यापार!
ये साहब लोग देते मुझे
कितना प्यार...
क्योंकि तब मैं भी
साहब लोगों को
दे पाता रोज़गार!
ये है
लॉकडाउन का
खरा -खरा
हाहाकार!
कर्मठ - सशक्त
युवा बेरोज़गार!
आपदा में अवसर
कैसे ढूँढ़े यार?
आपदा में अवसर
कैसे ढूँढ़े यार?

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