रविवार, 3 जून 2012

छोटे शहरों की वन-वे व्यथा ....

:वन-वे : रचनाकार : अमित सर:

सुबह  - सुबह छः-सात बजे ....
निकला करता था ऑफिस के लिये...
जाते में सारी दुकाने बंद होती थी ...
गलियाँ अलसाती हुई...
बस आँखे मलती रहती थी ....
किसी से दुआ - सलाम न होता था...
बस रास्ता सूना होता था...
पर लौटते में....
मुहल्ला जाग जाता था ...
रफ़्तार पकडके आगे-आगे ...
भाग जाता था...
बंद दरवाजों से चेहरे झाँकने लगते...
आते में हम दुआ-सलाम कर...
उन्हें ताकने लगते ....
आते में मैं अपने काम की गठरी
छोड़ आता था....
जीवन की रेल को
धीमी ट्रैक पर मोड़ लाता था ....
सबसे मिलता -मिलाता था ..
फिर घर को आता था...
पर सालों का ये सिलसिला ...
SP साहब ने ताक पर धर दिया
हमारी राहों को " वन - वे " कर दिया
हम अब अंजानी गलियों से ..
घूम कर घर तक आते है !!!
महंगाई में दुगुना पेट्रोल जलाते है !
A.C. केबिनों में बैठकर ....
न जाने अफसर ..
कैसे-कैसे तुगलकी फरमान सुनाते है ...
क्यों अपनी महत्वाकांक्षा में....
हमारे अरमान जलाते है !!!
पर इतने सालों की आदतें ...
कहाँ एक पल में बदलती है ...
अब भी गाड़ी उस मोड़ पर ...
मचलती है...
पर बात एक ही खलती है ....
घर सामने होता है -
पर मैं जा नहीं पाता हूँ ...
क्या करूँ " वन-वे " धर्म निभाता हूँ !!!!
क्या करूँ " वन-वे " धर्म निभाता हूँ !!!!

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