:शुक्र-पारगमन:रचनाकार:अमित सर: |
सूर्य !कितना क्रोध है,
संताप है तुममें ....
जाने कितनी ज्वाला ...
कितनी आग है तुममें ...
हमेशा धधकते रहते हो....
आग उगलते रहते हो ....
अपनी-ही क्रोधाग्नि में...
कितना जलते रहते हो ???
पर आज अचानक ...
तुम ,कितने शांत हो गए !!!
इतनी नरमी ओढ़ ली ...
कि -
अपने गाल पर ...
काला टिका लगा बैठे !!!
शुक्र के अणु को ...
खुद में समा बैठे ...
खूबसूरत बन गए ...
काला-तिल लगाकर...
या थक गए थे रोज-रोज ...
अपना दिल जलाकर !!!
सच कहो !!
कहीं तुम्हें प्यार तो नहीं हो गया !!!
बताओ न !
आखिर कैसे....
तुम्हारा भी दिल खो गया !!!
संताप है तुममें ....
जाने कितनी ज्वाला ...
कितनी आग है तुममें ...
हमेशा धधकते रहते हो....
आग उगलते रहते हो ....
अपनी-ही क्रोधाग्नि में...
कितना जलते रहते हो ???
पर आज अचानक ...
तुम ,कितने शांत हो गए !!!
इतनी नरमी ओढ़ ली ...
कि -
अपने गाल पर ...
काला टिका लगा बैठे !!!
शुक्र के अणु को ...
खुद में समा बैठे ...
खूबसूरत बन गए ...
काला-तिल लगाकर...
या थक गए थे रोज-रोज ...
अपना दिल जलाकर !!!
सच कहो !!
कहीं तुम्हें प्यार तो नहीं हो गया !!!
बताओ न !
आखिर कैसे....
तुम्हारा भी दिल खो गया !!!
बताओ न !
आखिर कैसे ???
आखिर कैसे ???
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